“अतिस्वार्थ व्यक्ति का नाश करता है, और परोपकार व्यक्ति का कल्याण करता है।”* इस कारण से बुद्धिमान लोग स्वार्थ या अतिस्वार्थ को अच्छा नहीं मानते, और परोपकार को अच्छा मानते हैं।
स्वार्थ का मतलब है, *”केवल अपने लाभ के लिए कार्य करना। दूसरों की कोई चिंता नहीं करना, उनके सुख के लिए कोई ध्यान नहीं देना। केवल अपने ही सुख के बारे में सोचना और अपने ही सुख के लिए पुरुषार्थ करना, इसे स्वार्थ कहते हैं।” और “अपना लाभ हो, या न हो, परन्तु दूसरों की हानि अवश्य करना, इसे अतिस्वार्थ कहते हैं।”
परोपकार का तात्पर्य है, कि “दूसरों को भी सुख मिले, ऐसा सोचना और दूसरों के सुख के लिए कार्य करना।”*
परोपकार करने से ईश्वर आपको वर्तमान में भी और भविष्य में भी अवश्य ही सुख देगा। वह न्यायकारी है। उसका नियम है, *”जो व्यक्ति अच्छे काम करता है, उसको ईश्वर सुख देता है।” “और जो केवल अपना ही लाभ सोचता है, वैसे ही काम करता है, अतिस्वार्थी बनकर दूसरों की हानि भी करता है, उसे ईश्वर दंड देता है।” “अतः ईश्वर के दंड से बचने के लिए और सदा सुखी रहने के लिए परोपकार अवश्य ही करना चाहिए।”*
परोपकार करने से भविष्य में आप को अच्छा अर्थात मनुष्य जन्म मिलेगा, और अनेक प्रकार के सुख भी मिलेंगे। यह सब तो भविष्य में लाभ होगा ही। *”इसके साथ-साथ इस जन्म में भी, वर्तमान काल में भी आपका आनन्द तत्काल बढ़ेगा। आपका स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा।” “जो व्यक्ति अंदर से प्रसन्न आनंदित रहता है, उसका स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है। वह अनेक प्रकार के रोगों से वह बचा रहता है। उसकी आयु बढ़ती है।”*
*”अब यह परोपकार दो प्रकार से किया जाता है। एक निष्काम भाव से और दूसरा सकाम भाव से।”* निष्काम भाव का अर्थ है, *”मोक्ष सुख प्राप्ति के उद्देश्य से परोपकार करना.”* और सकाम भाव का अर्थ है कि *”सांसारिक सुख प्राप्ति के उद्देश्य से परोपकार करना।”*
*”जिसका स्तर ऐसा हो, कि वह मोक्ष प्राप्ति की भावना से परोपकार कर सकता है, तो वह ऐसा करे। उसका कर्म ‘निष्काम कर्म’ कहलाएगा।” “परन्तु प्रत्येक व्यक्ति का स्तर इतना ऊंचा नहीं होता, कि वह मोक्ष को समझ सके। मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से सारे काम कर सके।”* तो कोई बात नहीं। *”जो इतनी योग्यता नहीं रखता, तो वह सकाम भाव से ही सही, फिर भी परोपकार तो अवश्य ही करे।” “क्योंकि इससे उसका यह जन्म भी सुख से बीतेगा, और अगला जन्म भी सुखमय होगा।”*
*”इसलिए सकाम या निष्काम जैसे भी हो, परोपकार अवश्य ही करें।” “अति स्वार्थी बनकर दूसरों की हानि तो कभी न करें।”*
—- *”स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात।”*

